Saturday 23 September 2017

नौ महीने की आयु में कितने धोखे हुये हैं मासूम से !

यह समझदारों का कहना है कि जमाने की हकीकत जानने में तमाम उम्र गुजर जाती है। एक इस मासूम को देखिए, जो महज नौ माह की जिंदगी में दुनिया के कितने फरेबी चेहरे देख गया। जन्म लेते ही खुद को लावारिस पाया। किसी ने गोद लिया तो बीमारी देख फिर ठुकरा दिया। जिनके दिल में दर्द था, वह इलाज को लेकर दौड़े तो सरकारी सिस्टम से वास्ता पड़ा। लखनऊ से दिल्ली तक कहीं इलाज न मिला। उस मासूम का दर्द भला इससे जुदा क्या होगा |

यह शिकवा उस बच्चे का उसे जन्म देने वाले माता-पिता से हो सकता है, लेकिन इंसानियत के रिश्ते में तो कई लोग कठघरे में खड़े हैं। दर्द की दास्तां छोटी भले ही, लेकिन कितनी संवेदनाओं भरी है। बीते 30 दिसंबर को चकेरी में किसी ने नवजात बच्चे को झोले में रखकर लावारिस छोड़ दिया। राहगीरों की इत्तिला पर चकेरी पुलिस ने उसे चाइल्ड लाइन के सुपुर्द कर दिया। इस लावारिस की जिंदगी के लिए आस तब बंधी, जब तीन माह बाद केंद्रीय दत्तक संसाधन प्राधिकरण (सीएआरए) के निर्देश पर बच्चे को बर्रा-2 निवासी दंपति को गोद दे दिया गया। लाड-प्यार दिखाते हुए उन्होंने बच्चे का नाम 'शुभ' रख दिया। यह उसके साथ शायद कुदरत का मजाक था, क्योंकि जैसे ही दंपति को पता चला कि बच्चे की किडनी खराब है, उन्होंने उसे ठुकरा कर संस्था को वापस लौटा दिया। 16 सितंबर को संस्था पदाधिकारियों ने उसे एलएलआर अस्पताल के बालरोग विभाग में डॉ. एके आर्या की देखरेख में भर्ती करा दिया। चार दिन तक इलाज चला, लेकिन अभी छोटी सी जिंदगी को और भी इम्तिहान लेने थे। डॉक्टरों ने बच्चे के बेहतर इलाज के लिए लखनऊ से दिल्ली तक के बड़े अस्पताल बता दिए। सुभाष चिल्ड्रेन सोसाइटी के सदस्य लेकर भागे। सरकार के आला ओहदेदारों से लेकर प्रशासन के अफसरों तक से सिफारिश कराई, लेकिन लखनऊ से दिल्ली तक किसी अस्पताल में इलाज का इंतजाम न हुआ। हारकर वह उसे दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल ले गए, जहां डाक्टरों ने शुभ को मृत घोषित कर दिया।
शुभ की मौत से आहत धर्मेद्र ओझा, गौरव सचान सहित संस्था के अध्यक्ष कमलाकांत तिवारी आंसू बहाते रह गए। शुक्रवार सुबह बच्चे का शव लेकर कार्यकर्ता शहर आए और नौबस्ता पुलिस को सूचना दी, जिसके बाद पोस्टमार्टम कराया गया। मौत का कारण स्पष्ट न होने से बिसरा सुरक्षित रखा गया है।

बच्चे का सीरम क्रेटनिन काफी बढ़ा हुआ था। दोनों किडनियां फेल थीं। बेहतर इलाज के लिये ही बच्चे को एसजीपीजीआइ के लिये रेफर किया गया था। वैसे भी संस्था के कार्यकर्ता बेहतर इलाज के लिये उसे ले जाना चाहते थे।
 डॉ. एके आर्या मुख्य चिकित्साधीक्षक बाल रोग अस्पताल

नौ माह के बच्चे की किडनी ट्रांसप्लांट नहीं हो सकती। इलाज दो-ढाई साल का होने पर ही संभव था।
डॉ. देशराज गुर्जर

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